Ishtiyaaq

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Location: San Diego, California, United States

Like a particularly notorious child's tantrums, a mountaneous river's intemperance, a volcano's reckless carelessness and the dreamy eyes of a caged bird, imagination tries to fly unfettered. Hesitant as she takes those first steps, she sculpts those ambitious yet half baked earthen pots.

Sunday, April 30, 2006

Mirza Ghalib

Most of Ghalib's ghazals are written for someone whom the speaker holds very dear. It is never clear though, whether that special person is a girl a boy or god. Ghalib has successfully maintained this ambiguity in all his creations. For the sake of explanation, I shall assume that the revered subject is a girl.

आह को चाहिये एक उम्र असर होने तक,
कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ के सर होने तक

My prayer/pleading to you will need a lifetime to get realized. By the time it makes any effect on you, I might not be alive. ज़ुल्फ के सर refers to the change which the speaker is expecting on his/her lover/god as a result of the speaker's pleadings.

हमने माना कि तघाफुल ना करोगे लेकिन,
ख़ाक हो जायेंगे हम तुमको खबर होने तक

तघाफुल means neglect. I agree that you will not neglect me once you know the state of my heart but I wonder if I shall be alive by the time you get a wind of the affairs.

परतव-ए-खुर से है शबनम को फना की तालीम
मैं भी हँू एक इनायत कि नज़र होने तक

परतव-ए-खुर is the image/reflection of sunlight. In the same way as a drop of dew (शबनम) is aware of its mortality by sunlight, I am alive just to have that one sympathetic/understanding gaze of yours.

गम-ए-हस्ती का असद किससे हो जुज़ मर्ग इलाज
शमा हर रंग में जलती है सहर होने तक

गम-ए-हस्ती is the sum total of the pains of living. It now seems that all my pains will find their solution in my death. Till then I am like that flame which has to burn in every colour till her agony is relieved by the first light of the day

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ये ना थी हमारी किस्मत कि विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते यही इन्तज़ार होता

It was not in my destiny that I got a chance to meet her. Considering this, I welcome my death as an extended life would only have meant more longing and pain.

तेरे वादे पर जिये हम तो ये जान झूठ जाना
के खुशी से मर ना जाते अगर ऐतबार होता

Although I always knew that your promise was fake, I nevertheless lived believing that lie. If only I had faith in your truthfulness, I would have died of ecstacy

कहँू किससे मैं कि क्या है, शब-ए-गम बुरी बला है
मुझे क्या बुरा था मरना, अगर एक बार होता।

Whom do I tell how painful these sad nights are? If only I had to die just once, I would have happily accepted it.

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Thursday, April 27, 2006

Harivansh Rai Bachchan

तरु पर लौट रहें हैं नभचर,
लौट रहीं नौकाएँ तट पर,
पश्चिम कि गोदी में रवी कि, श्रांत किरण ने आश्रय पाया
साथी अंत दिवस का आया

जग के वृस्तित अंधकार में
जीवन के शत शत विचार में
हमें छोड़ कर चली गई लो, दिन कि मौन संगिनी छाया
साथी अंत दिवस का आया

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अब मत मेरा निर्माण करो
कुछ भी ना अभी तक बन पाया
युग युग बीते, मैं घबराया
भूलो मेरी व्याकुलता को, निज लज्जा का तो ध्यान करो
इस चक्की पे खाते चक्कर
मेरा तन मन जीवन जर्जर

हे कुंभकार, मेरी मिट्टी को और ना अब हैरान करो
कहने की सीमा होती है
सहने की सीमा होती है
कुछ मेरे भी वश में, मेरा अब सोच समझ अपमान करो

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इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

यह चाँद उदित होकर नभ में कुछ ताप मिटाता जीवन का,
लहरालहरा यह शाखाएँ कुछ शोक भुला देती मन का,
कल मुर्झानेवाली कलियाँ हँसकर कहती हैं मगन रहो,
बुलबुल तरु की फुनगी पर से संदेश सुनाती यौवन का,
तुम देकर मदिरा के प्याले मेरा मन बहला देती हो,
उस पार मुझे बहलाने का उपचार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

जग में रस की नदियाँ बहती, रसना दो बूंदें पाती है,
जीवन की झिलमिलसी झाँकी नयनों के आगे आती है,
स्वरतालमयी वीणा बजती, मिलती है बस झंकार मुझे,
मेरे सुमनों की गंध कहीं यह वायु उड़ा ले जाती है!
ऐसा सुनता, उस पार, प्रिये, ये साधन भी छिन जाएँगे,
तब मानव की चेतनता का आधार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

प्याला है पर पी पाएँगे, है ज्ञात नहीं इतना हमको,
इस पार नियति ने भेजा है, असमर्थबना कितना हमको,
कहने वाले, पर कहते है, हम कर्मों में स्वाधीन सदा,
करने वालों की परवशता है ज्ञात किसे, जितनी हमको?
कह तो सकते हैं, कहकर ही कुछ दिल हलका कर लेते हैं,
उस पार अभागे मानव का अधिकार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

कुछ भी न किया था जब उसका, उसने पथ में काँटे बोये,
वे भार दिए धर कंधों पर, जो रोरोकर हमने ढोए,
महलों के सपनों के भीतर जर्जर खँडहर का सत्य भरा!
उर में एसी हलचल भर दी, दो रात न हम सुख से सोए!
अब तो हम अपने जीवन भर उस क्रूरकठिन को कोस चुके,
उस पार नियति का मानव से व्यवहार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

संसृति के जीवन में, सुभगे! ऐसी भी घड़ियाँ आऐंगी,
जब दिनकर की तमहर किरणे तम के अन्दर छिप जाएँगी,
जब निज प्रियतम का शव रजनी तम की चादर से ढक देगी,
तब रविशशिपोषित यह पृथिवी कितने दिन खैर मनाएगी!
जब इस लंबेचौड़े जग का अस्तित्व न रहने पाएगा,
तब तेरा मेरा नन्हासा संसार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

ऐसा चिर पतझड़ आएगा, कोयल न कुहुक फिर पाएगी,
बुलबुल न अंधेरे में गागा जीवन की ज्योति जगाएगी,
अगणित मृदुनव पल्लव के स्वर 'भरभर' न सुने जाएँगे,
अलिअवली कलिदल पर गुंजन करने के हेतु न आएगी,
जब इतनी रसमय ध्वनियों का अवसान, प्रिय हो जाएगा,
तब शुष्क हमारे कंठों का उद्गार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

सुन काल प्रबल का गुरु गर्जन निर्झरिणी भूलेगी नर्तन,
निर्झर भूलेगा निज 'टलमल', सरिता अपना 'कलकल' गायन,
वह गायकनायक सिन्धु कहीं, चुप हो छिप जाना चाहेगा!
मुँह खोल खड़े रह जाएँगे गंधर्व, अप्सरा, किन्नरगण!
संगीत सजीव हुआ जिनमें, जब मौन वही हो जाएँगे,
तब, प्राण, तुम्हारी तंत्री का, जड़ तार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

उतरे इन आखों के आगे जो हार चमेली ने पहने,
वह छीन रहा देखो माली, सुकुमार लताओं के गहने,
दो दिन में खींची जाएगी ऊषा की साड़ी सिन्दूरी
पट इन्द्रधनुष का सतरंगा पाएगा कितने दिन रहने!
जब मूर्तिमती सत्ताओं की शोभाशुषमा लुट जाएगी,
तब कवि के कल्पित स्वप्नों का श्रृंगार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

दृग देख जहाँ तक पाते हैं, तम का सागर लहराता है,
फिर भी उस पार खड़ा कोई हम सब को खींच बुलाता है!
मैं आज चला तुम आओगी, कल, परसों, सब संगीसाथी,
दुनिया रोतीधोती रहती, जिसको जाना है, जाता है।
मेरा तो होता मन डगडग मग, तट पर ही के हलकोरों से!
जब मैं एकाकी पहुँचूँगा, मँझधार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

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कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था
भावना के हाथ ने जिसमें वितानों को तना था

स्वप्न ने अपने करों से था जिसे रुचि से सँवारा
स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सना था
ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर, कंकड़ों को
एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

बादलों के अश्रु से धोया गया नभ-नील नीलम
का बनाया था गया मधुपात्र मनमोहक, मनोरम
प्रथम ऊषा की किरण की लालिमा-सी लाल मदिरा
थी उसी में चमचमाती नव घनों में चंचला सम
वह अगर टूटा मिलाकर हाथ की दोनों हथेली
एक निर्मल स्रोत से तृष्णा बुझाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

क्या घड़ी थी, एक भी चिंता नहीं थी पास आई
कालिमा तो दूर, छाया भी पलक पर थी न छाई
आँख से मस्ती झपकती, बात से मस्ती टपकती
थी हँसी ऐसी जिसे सुन बादलों ने शर्म खाई
वह गई तो ले गई उल्लास के आधार, माना
पर अथिरता पर समय की मुसकराना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

हाय, वे उन्माद के झोंके कि जिनमें राग जागा
वैभवों से फेर आँखें गान का वरदान माँगा
एक अंतर से ध्वनित हों दूसरे में जो निरंतर
भर दिया अंबर-अवनि को मत्तता के गीत गा-गा
अंत उनका हो गया तो मन बहलने के लिए ही
ले अधूरी पंक्ति कोई गुनगुनाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

हाय, वे साथी कि चुंबक लौह-से जो पास आए
पास क्या आए, हृदय के बीच ही गोया समाए
दिन कटे ऐसे कि कोई तार वीणा के मिलाकर
एक मीठा और प्यारा ज़िन्दगी का गीत गाए
वे गए तो सोचकर यह लौटने वाले नहीं वे
खोज मन का मीत कोई लौ लगाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

क्या हवाएँ थीं कि उजड़ा प्यार का वह आशियाना
कुछ न आया काम तेरा शोर करना, गुल मचाना
नाश की उन शक्तियों के साथ चलता ज़ोर किसका
किंतु ऐ निर्माण के प्रतिनिधि, तुझे होगा बताना
जो बसे हैं वे उजड़ते हैं प्रकृति के जड़ नियम से
पर किसी उजड़े हुए को फिर बसाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

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मधुर प्रतीक्षा ही जब इतनी, प्रिय तुम आते तब क्या होता ?

मौन रात इस भाँति कि जैसे, को‌ई गत वीणा पर बज कर,
अभी-अभी सो‌ई खो‌ई-सी सपनों में तारों पर सिर धर
और दिशा‌ओं से प्रतिध्वनियाँ, जाग्रत सुधियों-सी आती हैं,
कान तुम्हारी तान कहीं से यदि सुन पाते, तब क्या होता ?

तुमने कब दी बात रात के सूने में तुम आनेवाले,
पर ऐसे ही वक्त प्राण मन, मेरे हो उठते मतवाले,
साँसें घूम-घूम फिर - फिर से, असमंजस के क्षण गिनती हैं,
मिलने की घड़ियाँ तुम निश्चित, यदि कर जाते तब क्या होता ?

उत्सुकता की अकुलाहट में, मैंने पलक पाँवड़े डाले,
अम्बर तो मशहूर कि सब दिन, रहता अपना होश सम्हाले,
तारों की महफ़िल ने अपनी आँख बिछा दी किस आशा से,
मेरे मौन कुटी को आते तुम दिख जाते तब क्या होता ?

बैठ कल्पना करता हूँ, पगचाप तुम्हारी मग से आती
रग-रग में चेतनता घुलकर, आँसु के कण-सी झर जाती,
नमक डली-सा गल अपनापन, सागर में घुलमिल-सा जाता,
अपनी बाहों में भरकर प्रिय, कण्ठ लगाते तब क्या होता ?

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तीर पर कैसे रुकूं मैं
आज लहरों में निमन्त्रण !

रात का अंतिम प्रहर है
झिलमिलाते हैं सितारे,
वक्ष पर युग बाहु बांधे
मैं खड़ा सागर किनारे,
वेग से बहता प्रभंजन
केश पट मेरा उड़ाता,
शून्य में भरता उदघि-
उर की रहस्यमयी पुकारें;
इन पुकारों की प्रतिध्वनि
हो रही मेरे ह्रदय में,
है प्रतिच्छायित जहां पर
सिंधु का हिल्लोल-कंपन
तीर पर कैसे रुकूं मैं
आज लहरों में निमन्त्रण !

विश्व की सम्पूर्ण पीड़ा
सम्मिलित हो रो रही है,
शुष्क प्रथ्वी आँसुओं से
पाँव अपने धो रही है
इस धरा पर जो बसी दुनिया
यही अनुरूप उसके-
इस व्यथा से हो ना विचलित
नींद सुख की सो रही है;
क्यों धरणी अब तक ना गल कर
लीन जलनिधि हो गयी हो ?
देखते क्यों नेत्र कवि के
भूमि पर जड़-तुल्य जीवन ?
तीर पर कैसे रुकूं मैं
आज लहरों में निमन्त्रण !

जड़ जगत में वास कर भी
जड़ हीं व्यवहार कवि का
भावनाओं से विनर्मित
और ही संसार कवि का,
बूंद के उच्छवास को भी
अनसुनी करता नहीं वह
किस तरह होता उपेक्षा-
पात्र पारावार कवि का,
विश्व-पीड़ा से सुपरिचित
हो तरल बनने पिघलने,
त्यागकर आया यहाँ कवि
स्वप्न लोकों का प्रलोभन ।
तीर पर कैसे रुकूं मैं
आज लहरों में निमन्त्रण !

जिस तरह मरु के ह्रदय में
है नहीं लहरा रहा सर,
जिस तरह पावस पवन में
है पपीहे का छिपा स्वर,
जिस तरह से अश्रु आहों से
भरी कवि की निशा में
नींद की परियाँ बनाती
कल्पना का लोक सुखकर,
सिंधु के इस तीव्र हाहा-
कार ने विश्वास मेरा,
है छिपा रक्खा कहीं पर
एक रस-परिपूर्ण गायन ।
तीर पर कैसे रुकूं मैं
आज लहरों में निमन्त्रण !

Dharamveer Bharati

फागुन के सूखे दिन,
कस्बे के स्टेशन की धूल भरी राह बड़ी सूनी सी,
ट्रे्न गुज़र जाने के बाद,
पके खेतों पर खामोशी पहले से और हुई दूनी सी।

Haven't you ever, on those long train journeys, passed such a train station where time seems to have come to screeching halt, its inertia continuous being prodded by hot summer air and lonely dust flowing with it. Where the only sign of human civilization is the vast green expanse of rural farms and those slothful Peepal trees which line the adjoining mud platform. The station doesnt seem to serve any town or village. Its there all by itself, brooding, too tired to acknowledge the passing trains, too silent to curb the song of the birds on the peepal...

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विदा देती एक दुबली बाँह सी यह मेड़
अंधेरे में छूटते चुपचाप बूढ़े पेड़,

ख़त्म होने को ना आएगी कभी क्या
एक उजड़ी माँग सी यह धूल धूसर राह ?
एक दिन क्या मुझी को पी जाएगी
यह सफर कि प्यास, अबुझ, अथाह ?

क्या यही सब साथ मेरे जायेंगे
ऊंघते कस्बे, पुराने पुल ?
पांव में लिपटी हुई यह धनुष सी दुहरी नदी
बींध देगी क्या मुझे बिलकुल ?

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Gopaldas Neeraj


स्वप्न झरे फूल से,
मीत चुभे शूल से,
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से,
और हम खड़ेखड़े बहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे!

नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई,
पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई,
पातपात झर गये कि शाख़शाख़ जल गई,
चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई,
गीत अश्क बन गए,
छंद हो दफन गए,
साथ के सभी दिऐ धुआँधुआँ पहन गये,
और हम झुकेझुके,
मोड़ पर रुकेरुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

Lines from Neeraj's beautiful poem titled "कारवाँ गुज़र गया". Sensitive description of emotions when the writer sees his life passing away and realizes that he has compromised too many of his dreams during the course.

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Meerabai


पायो जी म्हें तो राम रतन धन पायो।
वस्तु अमोलक दी म्हारे सतगुरू, किरपा कर अपनायो॥
जनम-जनम की पूँजी पाई, जग में सभी खोवायो।
खरच न खूटै चोर न लूटै, दिन-दिन बढ़त सवायो॥
सत की नाँव खेवटिया सतगुरू, भवसागर तर आयो।
'मीरा' के प्रभु गिरिधर नागर, हरख-हरख जस पायो॥

This is a very famous devotional song written by Meerabai. The song is in Avadhi and has a few touches of Rajasthani. I have never really understood the full import of the song(bhajan) but I love its rendition. Coupled with the knowledge that it expresses love in its purest form, its beautiful tune endears to the heart. You can listen to the song at:
http://www.raaga.com/channels/hindi/movie/HD000011.html

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Wednesday, April 26, 2006

Gulzar


दिन खाली खाली बरतन है,
और रात है जैसे अंधा कुआं,
इन सूनी अकेली आँखों में,
आँसू कि जगह आता है धुआँ

जीने कि वजह तो कोई नहीं,
मरने का बहाना ढूँढता है।

एक अकेला इस शहर में, रात में और दोपहर में,
आबोदाना ढूँढता है, आशियाना ढूँढता है,

Lyrics from the song "Ek Akela" from the movie "Gharonda". Here Gulzar beautifully expresses the feeling of helplessness, hopelessness and futility which dawn upon the mind of someone who has become tired of trying. He compares the day to an empty vessel which does not offer anything, not even hope. Night is like a bottomless, dark, well. Hopelessness has reached such acuteness that tears no more come to the eyes. Its only, burning, painful smoke.

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तेरे गमों कि डली बनाकर ज़ुबँा पे रख ली है देखो मैंने
वो कतरा कतरा पिघल रही है, मैं कतरा कतरा ही जी रहा हँू।

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जबसे तुम्हारे नाम कि मिसरी होंठ लगाई है
मीठा सा गम है और मीठी सी तनहाई है।

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किसी मौसम का झोंका था,
जो इस दीवार पर लटकी हुइ तस्वीर तिरछी कर गया है
गये सावन में ये दीवारें यूँ सीली नहीं थीं
ना जाने इस दफा क्यूँ इनमे सीलन आ गयी है
दरारें पड़ गयी हैं और सीलन इस तरह बैठी है
जैसे खुश्क रुक्सारों पे गीले आसूं चलते हैं

ये बारिश गुनगुनाती थी इसी छत की मुंडेरों पर
ये घर कि खिड़कीयों के कांच पर उंगली से लिख जाती थी सन्देशे
देखती रहती है बैठी हुई अब, बंद रोशंदानों के पीछे से

दुपहरें ऐसी लगती हैं, जैसे बिना मोहरों के खाली खाने रखे हैं,
ना कोइ देखने वाला है बाज़ी, और ना कोई चाल चलता है,

ना दिन होता है ना रात, सभी कुछ रुक गया है,
वो क्या मौसम का झोंका था, जो इस दीवार पर लटकी हुइ तस्वीर तिरछी कर गया है

The brilliance of Gulzar at play from the movie Raincoat as he describes a life in waiting, halted at its footsteps, frozen in time, waiting for someone to urge time to move forward. (as commented by Parth)

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सुबह सुबह एक ख्वाब की दस्तक पर,
दरवाज़ा खोला और देखा,
सरहद के उस पार से कुछ मेहमान आये हैं,
आँखों से मानूस थे सारे,
चेहरे सारे सुने सुनाये,
पाँव धोये, हाथ धुलवाये,
आँगन में आसन लगवाये,
और तन्दूर पर मक्के के कुछ मोटे मोटे रोख पकाये,
पोटली में मेहमान मेरे,
पिछले सालों कि फसलों का गुड़ लाये थे,

आँख खुली तो देखा घर में कोई नहीं था,
हाथ लगा कर देखा तो तन्दूर अभी तक बुझा नहीं था,
और होठों पे मीठे गुड़ का ज़ायका अब तक चिपक रहा था,
ख्वाब था शायद, ख्वाब ही होगा,
सरहद पर कल रात सुना है चली थी गोली,
सरहद पर कल रात सुना है कुछ ख्वाबों का खून हुआ था।

Gulzaar, very beautifully describes the human pining which gets brutally buried under the military hostilities between India and Pakistan. This is soulfully narrated in his own mellifluous voice in the album Marasim.

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शाम से आँख मे नमी सी है,
आज फिर आपकी कमी सी है,

दफ्न कर दो हमें कि सांस मिले,
नब्ज़ कुछ देर से थमी सी है,

वक्त रहता नहीं कहीं छुपकर,
इसकी आदत भी आदमी सी है।

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दिल ढूंढता है, फिर वही फुरसत के रात दिन,
बैठे रहें, तसव्वुरे जाना किये हुये,

जाड़ों कि नरम धूप और आंगन में लेट कर,
आँखों पे खीँच कर तेरे दामन के साये को,
औन्धे पड़े रहें कभी करवट लिये हुये

या गरमियों कि रात जो पुरवाईयाँ चलें,
ठंडी सफेद चादरों पे जागें देर तक,
तारों को देखते रहें छत पर पड़े हुये,

दिल ढूंढता है...

So nostalgic... and so beautifully expressed...

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इस मोड़ से जाते हैं,
कुछ सुस्त कदम रस्ते, कुछ तेज़ कदम राहें,
पत्थर की हवेली को शीशे के घरोंदों में,
तिनकों के नशेमन तक,
इस मोड़ से जाते हैं।

तेरे बिना ज़िन्दगी से शिकवा तो नहीं, शिकवा नहीं, शिकवा नहीं, शिकवा नहीं,
तेरे बिना ज़िन्दगी भी लेकिन ज़िन्दगी तो नहीं, ज़िन्दगी नहीं, ज़िन्दगी नहीं
जी में आता है, तेरे दामन में सर झुका के हम, रोते रहें, रोते रहें,
तेरी भी आँखों में आँसुओं कि नमी तो नहीं

Aandhi has one of my favourite Gulzar collections. The above two songs stand testimony to the intricately woven genius of the great man. Especially the line "जी में आता है..." always sends shivers down my spine owing to its amazing emotional content.

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मौत तू एक कविता है,
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको

डूबती नब्ज़ों में जब दर्द को नींद आने लगे
ज़र्द सा चेहरा लिये जब चांद उफक तक पहुचे
दिन अभी पानी में हो, रात किनारे के करीब
ना अंधेरा ना उजाला हो, ना अभी रात ना दिन

जिस्म जब ख़त्म हो और रूह को जब साँस आऐ
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको

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Ishtiaaq

For the benefit of those who are not familiar with Urdu (like me), Ishtiaaq means a longing, a craving, a desire. I have been thinking of doing something like this for quiet some time now. During the last few years, I have come across such literary material (in English, Hindi and Urdu), that it has almost swept me from my feet more than once. I have admired the finesse with which the most eloquent minds express themselves. I have been floored by the exact, almost incisive observations of those piercing eyes. I have loved the spiritual trance with which the words written by such geniuses dance and sway. I have felt small, almost insignificant, in the presence of the soulful music which takes shape from the myriad combinations of amazingly beautiful words. I have longed for even a fraction of such a talent. I have pined for their ability of seeing beauty in sadness. It has been a lifelong Ishtiaaq. This blog, in my small way, is a tribute to such transcendental beauty.