Dharamveer Bharati
फागुन के सूखे दिन,
कस्बे के स्टेशन की धूल भरी राह बड़ी सूनी सी,
ट्रे्न गुज़र जाने के बाद,
पके खेतों पर खामोशी पहले से और हुई दूनी सी।
Haven't you ever, on those long train journeys, passed such a train station where time seems to have come to screeching halt, its inertia continuous being prodded by hot summer air and lonely dust flowing with it. Where the only sign of human civilization is the vast green expanse of rural farms and those slothful Peepal trees which line the adjoining mud platform. The station doesnt seem to serve any town or village. Its there all by itself, brooding, too tired to acknowledge the passing trains, too silent to curb the song of the birds on the peepal...
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विदा देती एक दुबली बाँह सी यह मेड़
अंधेरे में छूटते चुपचाप बूढ़े पेड़,
ख़त्म होने को ना आएगी कभी क्या
एक उजड़ी माँग सी यह धूल धूसर राह ?
एक दिन क्या मुझी को पी जाएगी
यह सफर कि प्यास, अबुझ, अथाह ?
क्या यही सब साथ मेरे जायेंगे
ऊंघते कस्बे, पुराने पुल ?
पांव में लिपटी हुई यह धनुष सी दुहरी नदी
बींध देगी क्या मुझे बिलकुल ?
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कस्बे के स्टेशन की धूल भरी राह बड़ी सूनी सी,
ट्रे्न गुज़र जाने के बाद,
पके खेतों पर खामोशी पहले से और हुई दूनी सी।
Haven't you ever, on those long train journeys, passed such a train station where time seems to have come to screeching halt, its inertia continuous being prodded by hot summer air and lonely dust flowing with it. Where the only sign of human civilization is the vast green expanse of rural farms and those slothful Peepal trees which line the adjoining mud platform. The station doesnt seem to serve any town or village. Its there all by itself, brooding, too tired to acknowledge the passing trains, too silent to curb the song of the birds on the peepal...
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विदा देती एक दुबली बाँह सी यह मेड़
अंधेरे में छूटते चुपचाप बूढ़े पेड़,
ख़त्म होने को ना आएगी कभी क्या
एक उजड़ी माँग सी यह धूल धूसर राह ?
एक दिन क्या मुझी को पी जाएगी
यह सफर कि प्यास, अबुझ, अथाह ?
क्या यही सब साथ मेरे जायेंगे
ऊंघते कस्बे, पुराने पुल ?
पांव में लिपटी हुई यह धनुष सी दुहरी नदी
बींध देगी क्या मुझे बिलकुल ?
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